Monday, June 29, 2009

उम्मीद ..















सूरज कब ढलेगा ,
इंतज़ार में देखो सांझ खड़ी है,
फिकर न करो मुसाफिर,
इन अंधेरों में भी रौशनी तमाम पड़ी है।

~सौम्या 

Saturday, June 27, 2009

मकड़ी का मर्म...














अपना आगार सँवारने के लिए,
तुम मेरा आशियाना क्यूँ तोड़ती हो?
कल्प-कल्प से हर कण जुटाती मैं,
तुम पल भर में ही उधेड़ देती हो।
क्यूँ,क्यूँ करती हो तुम ऐसा ?
क्या कृत्य तुम्हारा नही यह नृशंस जैसा?

प्रश्न यह कुछ अप्रत्याशित था,
इक मूक के मर्म का साक्षी था।
मैंने उत्तर दिया,
मैं तो मात्र अपना घर बुहारती हूँ,
दीवारों से लिपटे जालों को हटाती हूँ।

प्रतिउत्तर मिला की तुम,
दृग में लगे जालों को,
दिल में लगे जालों को,
क्यूँ नही हटाती ?
क्यूँ नही मिटाती ?

मैंने तो तुम्हारे आलय को देवालय सा जाना था ,
नगण्य से उस कोने को,अपना संसार माना था।
न पता था तुम्हारे दिल की दीवारें इस कदर कमजोर हैं ,
कि मेरे आशियाने का भार सह ना पाएँगी,
संकीर्णता तुम्हारे मन की इतनी पुरजोर है,
कि अनिकेतन को सहारा कभी दे ही ना पाएँगी।

मैं नीरव निस्पंद सी देखती रही,
अपनी अनभिज्ञता को कोसती रही।

मकड़ी ने कहा......
जाओ अपनी सीरत को सवारों,
अपने अंतरतम को बुहारो,
पाथय प्रेम का स्वीकारो,
फिर क्या पता ,
मैं अपना ठिकाना बदल लूँ,
कहीं किसी ऐसे महल में जहाँ,
दृगों में जाले अभी भी लगे हुए हैं.......
दिलों में जाले अभी भी लगे हुए हैं.......

आज मैं फिर से जाले हटा रही हूँ...
फर्क इतना है की जगह बदल गई है………

मायने बदल गए हैं.......

~सौम्या 

Sunday, June 14, 2009

आँखें...



आंखों में अश्कों को पिरोती ये आँखें ,
ख़्वाबों को पलकों पर संजोती ये आँखें,
दिल का हर कलाम कहती ये आँखें,
हर खुशी,हर सितम सहती ये आँखें।

निर्बल,निरीह सिसकती वह आँखें ,
उन आंखों में सवाल करती वह आँखें,
मेरी माँ की वह निश्छल सी आँखें,
पापा के अरमानों को बयां करती वह आँखें।

भीड़ में अपनों को खोजती ये आँखें,
इशारों-इशारों में बोलती ये आँखें,
पर्दे को बेपर्दा करती ये आँखें,
अंधेरों में रौशनी ढूढंती ये आँखें।

आंखों में अश्कों को पिरोती ये आँखें,
ख्वाबों को पलकों पर संजोती ये आँखें,
दिल का हर कलाम कहती ये आँखें,
हर खुशी,हर सितम सहती ये आँखें!!!! 

~सौम्या 

Thursday, June 11, 2009

है डर मुझे...

है डर मुझे...
कि मतलब भींज़ती इस दुनिया में,
ममता कहीं बिफर ना जाए,
मैं,मेरा मात्र के दंभ में,
सस्मित संतति सिहर ना जाए।

है डर मुझे...
कि अंधों की आलोड़ित दौड़ में,
कोई अपना पीछे छूट ना जाए,
आडम्बर भरी इस होड़ में,
धागा प्रणय का टूट ना जाए।

है डर मुझे...
कि गगन-भेदती इन दीवारों में,
बगिया कोई ठूंठ ना जाए ,
दिल में पड़े कीवाड़ों से,
माता मही सब रूठ ना जाएँ ।

है डर मुझे...
कि निर्बल सिसकती उन आंखों में,
उम्मीद का बाँध टूट ना जाए ,
दारूण वेदना की सलाखों में,
उघरता आक्रोश कहीं फूंट ना जाए।

है डर मुझे...
कि मनुष्य की कथित रवानी से ,
विहग विहान सब ठहर न जाएँ,
हम-आप की कारस्तानी से,
विधि फिर कोई कहर ना ढाए।

है डर मुझे...
कि भीड़ के इस कोलाहल में,
कू-कू ,कल-कल दब ना जाए,
मुमूर्षों की इस महफिल को,
माहौल मरघट का ही फब ना जाए।

है डर मुझे...
कि सियारों की सियासत में,
सत्य सदा के लिए झुक ना जाए,
मनुष्य की भाव-भंगिमा से आहत,
कातर कलम मेरी रुक ना जाए...
कातर कलम कहीं ....................

हाँ ,है डर मुझे....


~ सौम्या 


Friday, June 5, 2009

फर्क क्यूँ?

ऐ बनाने वाले बता तेरी दुनिया में फर्क क्यूँ?

कोई हिम सा उच्च है कोई कूप सा गूढ़ क्यूँ?
कोई धरा उर्वर बनी कोई रेगिस्तान क्यूँ?
ऐ बनाने वाले बता तेरी दुनिया में फर्क क्यूँ?

कोई ईंट कंगूरा बनी कोई नींव को भेंट क्यूँ?
किसी को शोहरत मिली कोई अनाम उत्सर्ग क्यूँ?
ऐ बनाने वाले बता ईंट-ईंट में फर्क क्यूँ?

कोई बूँद मोती बनी कोई माटी में संसर्ग क्यूँ?
कोई श्रृंगार की शोभा बनी कोई अस्तित्व-विहीन क्यूँ?
ऐ बनाने वाले बता बूँद-बूँद में फर्क क्यूँ?

कोई पत्थर चाँद बना कोई सड़क पर अभिशप्त क्यूँ?
किसी को पूजा गया किसी को पाँव की गफलत क्यूँ?
ऐ बनाने वाले बता पत्थर-पत्थर में फर्क क्यूँ?

कोई दौलत-मंद यहाँ कोई इतना गरीब क्यूँ?
किसी को मलाई-मेवा कोई कोदई को मजबूर क्यूँ?
ऐ बनाने वाले बता यह अतिवृह्ग फर्क क्यूँ?

कोई यहाँ समृद्ध हुआ किसी की ज़िन्दगी बेरंग क्यूँ?
किसी के सपने सच हुए किसी के हिस्से दर्द क्यूँ?
ऐ बनाने वाले बता तेरी दुनिया में फर्क क्यूँ?


~सौम्या