Friday, July 3, 2009

रात का बटोही...




मढ़िया में रहता,रखवाली महलों की वह करता है,
किसी और की ज़िन्दगी के लिए,साथ मौत लिए फिरता है।
अपने ही प्रतिरूप को सलाम किया करता है,
दफ्तर,दुकान,दहलीज़ पर वह चौकस हुआ फिरता है।
सुनसान राहों पर शूर सा विचरता है,
निशाचर यह,नाम,’पहरेदार’ लिए फिरता है।

कभी बंद तालों को देखता,
कभी अंधियारों को भेदता,
ज़िन्दगी में रौशनी की आस लिए फिरता है,
किवाड़ के खुलने का एहसास लिए फिरता है।
एक गम नही,कुछ गम नही,
पूरी 'रात' लिए फिरता है।
तकदीर कब बदलेगी,
यह सवाल लिए फिरता है।


निशाचर यह,नाम,'पहरेदार'लिए फिरता है,
आखों में सपनों का आगार लिए फिरता है।
सीटी बजाते,लाठी पीटते,
'जागते रहो' का पैगाम लिए फिरता है।
रात का बटोही यह बाट लिए फिरता है,
नव विहान में नव उमंग की दरकार लिए फिरता है।

~सौम्या